लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।
महर्षि पतंजलि के योग को ही अष्टांग योग या राजयोग कहा जाता है। योग के उक्त आठ अंगों में ही सभी तरह के योग का समावेश हो जाता है। भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी योग के उक्त आठ अंगों का ही हिस्सा है। हालांकि योग सूत्र के आष्टांग योग बुद्ध के बाद की रचना है।
महर्षि पतंजलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ के रूप में परिभाषित किया है।
योगसूत्र में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है ।अष्टांग अर्थात आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है ।
योग के ये आठ अंग निम्न हैं:
१. यम : पांच सामाजिक नैतिक नियम
(क) अहिंसा – वाणी से, विचारों से और कर्मों से किसी भी जीव जगत को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य – मन, वचन और कर्म से सत्यता का पालन करना
(ग) अस्तेय – चौर्य प्रवृत्ति से निवृत्ति
(घ) ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:
* चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना अर्थात ब्रह्म की चर्या में रहना | * सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना या पुर्णतः सहज मुक्त रहना |
(च) अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक का संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिक नियम
(क) शौच – शरीर और मन की शुचिता
(ख) संतोष -जो कुछ जीवन में प्राप्त हैं उसमें संतुष्ट रहना और जो प्राप्त करने योग्य है उसके लिए पुरुषार्थ करना न कि उसके लिए दुःख मनाना
(ग) तप – द्वन्दों को सहन करना, स्व अनुशासन में रहना, सर्दी, गर्मी, लाभ-हानि , जय-पराजय आदि में सम रहना
(घ) स्वाध्याय – सत्साहित्य, मोक्ष शास्त्रों एवं आप्त पुरुषों और गुरुओं द्वारा रचित ग्रंथों को पढ़ना और आत्मचिंतन, आत्म निरीक्षण करना
(च) ईश्वर-प्रणिधान – मन, वचन से समस्त शुभ और अशुभ कर्मों को ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित करना , पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण विश्वास और निष्ठा के साथ ईश्वर को ही अपना सर्वस्व मानना, फलाकांक्षा से मुक्त रहकर अपने स्वधर्म, वर्णाश्रम विहित कर्मो में निरत रहना|
३. आसन: अष्टांग अंग का तीसरा अंग है आसन | महर्षि पतंजलि योगदर्शन में आसन के विषय में बताते हुए कहते हैं कि शरीर की जिस स्थिति में रहते हुए सुख का अनुभव होता हो और उस शारीरिक स्थिति में स्थिरता पूर्वक अधिक देर तक सुखपूर्वक रहा जा सकता हो उस स्थिति विशेष को आसन कहते हैं |
आसन कितने हैं इस विषय में महर्षि पतंजलि ने विशेष रूप से इंगित नहीं किया है लेकिन हठ योग प्रदीपिका अनुसार जितने इस धरा पर जीव हैं उतने प्रकार के आसन हैं और अभी के समय में प्रचलित अधिकतर आसन जीवों के नाम पर हैं | जैसे मर्कटासन, मकरासन, गोमुखासन आदि | स्वास्थ्य के लिये आसन किस प्रकार उपयोगी हैं ?
१. आसन करने से शरीर में लचीलापन आता है जिससे व्यक्ति पुरे दिनभर सक्रिय रहता है | सक्रियता बढ़ने से सृजनात्मकता बढ़ती है|
२. आसन करने से एकाग्रता बढ़ती है और व्यक्ति में समझ का स्तर ऊँचा होता है |
३. आसन करने से व्यक्ति की जीवन शैली में नियमितता आती है और जीवन स्वास्थ्य की दिशा में अग्रसर होता है |
४. आसन करने से व्यक्ति में मन में अष्टांग योग के अनुष्ठान में प्रीति बढ़ती है|
५. आसन करने से शरीर से विजातीय तत्व बहार निकल आते हैं और व्यक्ति को स्वयं में नयेपन का एहसास होता है|
४. प्राणायाम: प्राणायाम का अर्थ है प्राणों का आयाम | अर्थात प्राणों का विस्तार | महर्षि पतंजलि ने मुख्य रूप से प्राणायाम के चार प्रकार कहे हैं | जब हम श्वास लेते हैं तो मुख्य रूप से तीन क्रियाएं करते हैं-
१.पूरक
२. कुम्भक
३. रेचक
पूरक: नियंत्रित एवं लयपूर्वक श्वास लेने की क्रिया को यौगिक भाषा में पूरक कहते हैं | कुम्भक: नियंत्रित एवं लयपूर्वक श्वास लेकर रोकने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं | कुम्भक दो प्रकार का होता है| बाह्य कुम्भक= नियंत्रित एवं लयपूर्वक श्वास छोड़कर श्वास को बाहर ही रोक देने की क्रिया को बाह्य कुम्भक कहते हैं | अन्तः कुम्भक = नियंत्रित एवं लयपूर्वक श्वास लेकर के श्वास को भीतर ही रोक देने की क्रिया को अन्तः कुम्भक कहते हैं |
1.नाड़ीशोधन
2.भ्रस्त्रिका
3.उज्जाई
4.भ्रामरी
5.कपालभांति
6.अनुलोम विलोम
7.भ्रामरी
8.शीतकारी
9.बाह्य
10.शीतली
11.सूर्यभेदी
12.चंद्रभेदी
13.प्रणव
14.अग्निसार
15.उद्गीथ
16.प्लावनी
17.शितायु
५. प्रत्याहार : प्रत्याहार अष्टांग योग का पांचवां अंग है | योग में प्रत्याहार का शाब्दिक अर्थ है “ इन्द्रियों को उनके आहार विषयों से विमुख कर देना “ प्रति + आहार मिलकर प्रत्याहार बनता है |
इन्द्रियां: इन्द्रियां दो प्रकार की हैं– १.ज्ञानेद्रियाँ २. कर्मेन्द्रियाँ
ज्ञानेद्रियाँ पांच प्रकार की हैं- जिन इन्द्रियों के माध्यम से हमें कुछ ज्ञान की अनुभूति होती है उन्हें हम ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं और ये पञ्च प्रकार की होती हैं |
१. आंख (चक्षु)
२.कान (श्रोत)
३.नाक (नासिका)
४. जीभ ( जिव्हा)
५. त्वचा (तवक्)
विषय: इन्द्रियाँ विषयी होती हैं अर्थात विषय का ज्ञान करती हैं | प्रत्येक इन्द्रियों के अपने अपने विषय होते हैं इस प्रकार विषय पांच प्रकार के होते हैं |
१. रूप
२. श्रवण
३. गंध
४. रस
५. स्पर्श
इन्द्रियों को उसके आहार अर्थात विषय से विमुख कर देना इसी को योग की भाषा में प्रत्याहार कहते हैं |
६. धारणा: चित्त को किसी एक विचार में बांध लेने की क्रिया को धारणा कहा जाता है। पतंजलि के अष्टांग योग का यह छठा अंग है। इससे पूर्व के पांच अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार कहे गए हैं जो योग में बाहरी साधन माने गए हैं । प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग के भीतरी अंग या साधन कहे गये हैं | धारणा शब्द ‘धृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ होता है धारण करना, संभालना, थामना या सहारा देना । योग दर्शन के अनुसार- “देशबन्धश्चित्तस्य धारणा” (योगसूत्र 3/1) अर्थात्- किसी स्थान (मन के भीतर या बाहर) विशेष पर चित्त को स्थिर करने का नाम धारणा है, अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों (रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श) से हटाकर चित्त में स्थिर किया जाता है, स्थिर एवं एकाग्र किये गए चित्त को एक ‘स्थान विशेष ’ पर रोक लेना ही धारणा है।
७. ध्यान: ध्यान चेतन मन की एक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी चेतना बाह्य जगत् के किसी चुने हुए दायरे अथवा स्थल एवं स्थान विशेष पर केंद्रित करता है। हिंदी में इसके साथ “देना”, “हटाना”, “रखना” आदि सकर्मक क्रियाओं का प्रयोग, इसमें व्यक्तिगत प्रयत्न की अनिवार्यता सिद्ध करता है। ध्यान द्वारा हम चुने हुए विषय की स्पष्टता एवं तद्रूपता सहित मानसिक धरातल पर लाते हैं। योगसम्मत ध्यान से इस सामान्य ध्यान में बड़ा अंतर है। पहला दीर्घकालिक अभ्यास की शक्ति के उपयोग द्वारा आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रेरित होता है, जबकि दूसरे का लक्ष्य भौतिक होता है और साधारण दैनंदिनी शक्ति ही एतदर्थ काम आती है।
संपूर्णानंद आदि कुछ भारतीय विद्वान् योगसम्मत ध्यान को सामान्य ध्यान की ही एक चरम विकसित अवस्था मानते हैं। किसी भी मनुष्य का सभी बाहरी कार्यों से विरक्त होकर किसी एक कार्य में लीन हो जाना ही ध्यान है। आशय यह है कि किसी एक कार्य में किसी का इतना लिप्त होना कि उसे समय,मौसम,एवं अनय शारीरिक जरूरतों का बोध न रहे इसे ही ध्यान कहते हैं।
८. समाधि: ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं। जब साधक ध्येय वस्तु (जिसका वह ध्यान कर रहा है) के ध्यान में पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है। पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ एवं अन्तिम अवस्था बताया गया है।
Editor
Shruti Tiwari
Desk -100counsellor.com
Reference – https://patanjaliyogasutra.in/article/ashtang-yoga-eight-components-of-yoga
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