श्रीमती रश्मि सहगल मेरे जीवन में खुशबू बिखेरने वाली व्यक्तित्व हैं। मैं आभारी हूं जीवन की क्योंकि उसने मुझे उन जैसे बहुमुखी व्यक्तित्व से मिलवाया।
आज भी याद है उनसे हुई पहली मुलाकात के पल। शाम के समय टहलने के दौरान सुश्री रजिता ने मेरा परिचय उनसे करवाया। उनके व्यक्तित्व का आकर्षण मुझे अंदर तक छू गया। कान तक कटे बाल, दुबला पतला शरीर और बड़ी मधुर आवाज़। बात करते-करते पता चला कि वो ज्योतिष विद्या की जानकार महिला हैं। कुंडली बनाती हैं, रत्नों की ज्ञाता हैं। कुछ ही पल बाद वो रजिता को बेसन के लड्डू का स्वाद बढ़ाने की रेसिपी बता रहीं थीं।
उस शाम मुझे लगा कि मैं उस कालोनी में रह रही हूं जहां एक व्यक्तित्व रहता है। कटारा हिल्स की ग्रीन पार्क सिटी में शाम 4 से 5 बजे सत्संग का आयोजन किया जाता था। इसी कालोनी की एक और व्यक्तित्व श्रीमती विजया मेडम ने सत्संग की शुरुआत की थी। सहगल मेडम भी वहां आती थी। वो समय की पाबंद महिला थी। समय पर पहुंचना, समय पर कार्य करना, व्यवस्थित रहना उनके खुद के बनाये नियमों में शामिल थे। मैं भी सत्संग में नियमित रुप से जाती थी। वहां सहगल मेडम से मुलाकात होने लगी।
कुछ समय बाद मेरा आपरेशन हुआ। अस्पताल से वापस जब मैं घर पहुंची तो वो मुझे देखने आई। उनका प्रेम से बात करने का तरीका दिल को छू गया। मुझसे ही नहीं मेरे पति और मम्मी से भी प्रेम से बांतें की। इस मुश्किल दौर में सभी की हिम्मत बंधाई। जब मैं चलने – फिरने लायक हुयी तो सत्संग में भी जाना शुरु किया। मेरा जीवन स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से गुजर रहा था। यह दौर मुझे निराशा के समुंदर में डुबा डालता था। इस समय मेरे लिए आवश्यक था पौष्टिक भोजन की तरह सकारात्मक माहौल।
एक दिन सहगल मेडम के घर में सत्संग था। सत्संग के बाद उनके साथ बातचीत करते समय मेरे स्वास्थ्य के बारे में चर्चा चली। मेरा मन भर आया। उन्होंने बड़े प्यार से कहा-‘बुरा दौर है बस गुजरने ही वाला है।’ फिर उन्होंने खुद के बारे में बताया। वो डायबिटीज के गंभीर पड़ाव पर पिछले 10 वर्षों से थी। इन्सुलिन प्रतिदिन और सुबह-शाम लेना उनके लिए जरुरी था। इन्सुलिन लेने की वजह से उनके शरीर पर पड़े घावों को महसूस कर मैं अंदर तक हिल गयी। मुझे अचरज हुआ कि प्रतिदिन इतना दर्द झेलते हुये भी जीवन को कितनी सहजता से लेती हैं?
वो स्वयं मीठा नहीं खाती थीं पर मीठी चीजें बनाने की विशेषज्ञ थीं। वो कहती थीं महिलाओं को किचन में रहकर अपनी निराशा और नकारात्मकता दूर करना चाहिये। वो खुद भी ऐसा करती थीं। मन अच्छा नहीं तो कोई रेसिपी तलाशकर कुछ नया बनाने जुट जाती थीं। नये व्यंजन बनाना फिर उसे प्यार से और अधिकार के भाव से खिलाने में तो वो एक्सपर्ट थीं। उनके दरवाजे पर कोई भी आ जाए, भले ही ‘बाई’ के बारे में पूछने आए पर वो कुछ खाए बगैर नहीं जा सकता।
मैं जब बेड रेस्ट ले रही थी तब 2-3 बार मेरे पास आई। हर बार जीवन के इस दौर के बीतने की सलाह देती। खाने की इच्छा पूछती और तुरंत पूरी भी करती। उनके पति के एक्सीडेंट के कारण कई आपरेशन हुये थे। वह खुद डायबिटीज के दर्द को झेल रहीं थी। उन्हें अच्छे से मालूम था कि स्वास्थ्य ठीक ना हो तो एक परिवार कितने दर्दों का सामना करता है। खराब तन और मन की स्थितियों को समझना उन्हें आता था।
इसी समय मुझे उनके व्यक्तित्व की एक और खूबी का पता चला। वो कैलीग्राफी विद्या की विशेषज्ञ भी थीं। मैंने जानते ही उनसे निवेदन किया अपने बेटे को यह आर्ट सिखाने के लिये। उन्होंने बड़ी सहजता से हां कह दिया और दूसरे ही दिन से मांशू की क्लास शुरु हो गयी।
मुझे बड़ी तकलीफ थी क्योंकि मांशू की हेंडराइटिंग लगातार खराब होती जा रही थी। स्कूल से भी शिकायतें आ रही थीं। मैं बहुत खुश थी क्योंकि उनके जैसे विशाल व्यक्तित्व की शिक्षिका मेरे बेटे को समय देने के लिए तैयार हो गयी थीं। मैं जानती थी ऐसा शिक्षक सिर्फ एक विषय नहीं सिखाता बल्कि समूचे व्यक्तित्व को प्रशिक्षित कर जाता है। उनकी क्लास शुरु होने के एक सप्ताह में ही मांशू की हेंडराइटिंग में सुधार आना शुरु हो गया।
मांशू को दूध पीना पसंद नहीं था। जब यह बात उन्हें पता चली तो वो क्लास से पहले मांशू को कभी गर्म तो कभी ठंडा दूध पिलवाती। मांशू भी उनकी बहुत इज्जत करता था। उनका कहना नहीं टालता था। यह सिलसिला तब तक चला जब तक उसने घर में दूध पीना शुरु नहीं कर दिया। धीरे- धीरे उनकी क्लास में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी।
उनकी क्लास में पार्टी होना तो आम बात थी। कभी वो बच्चों को संतरे खिलाती या कभी कोई दूसरे फल। बच्चे उनके हाथ की दही पूरी और छोले टिक्की के दीवाने थे। पोहा, उपमा या कचौरी की तो बात ही निराली थी। सभी बच्चे अपनी-अपनी मम्मियों को कहते कि मेडम से सीखो खाना बनाना। हम मम्मियां खुश थे। हमारे बच्चे जो भी डिश खाने में आना-कानी करते, हम मेडम को बता देते। मेडम नयी रेसिपी के साथ उसे बनाती और बच्चे प्यार से खाते भी। उन्होंने मुझे और पुष्पा भाभी को कई डिशेस बनाना सिखाया।
एक दिन उनका मेरे पास फोन आया। बोली लंबी बात करना है यदि कोई हाथ का काम छोड़कर आई हूं तो पहले उसे खत्म कर लूं। मैंने वैसा ही किया। उन्होंने बताया कि मांशू क्रिकेट खेल का दीवाना है। यह उसका पसंदीदा विषय है। वो अधिकतर क्रिकेट के बारे में ही बात करता है। मैं आश्चर्यचकित थी। इस बारे में उसने मुझसे तो कभी कोई बात नहीं की। या मैं अपने जीवन की समस्याओं में इतना घिरी थी कि उसके बढ़ते शौक पर नज़र ही नहीं गयी। ऐसा ही होता है टीचर और बच्चे के बीच का रिश्ता। यह रिश्ता भी तभी बनता है जब टीचर बच्चे के दिमाग में नही दिल में जगह बना ले।
उन्होंने मुझे सरल शब्दों में चेतावनी भी दे डाली कि यदि मैं उसे क्रिकेट खेल से दूर करुंगी तो वह डिप्रेशन में भी आ सकता है। क्रिकेट, मांशू और उसका दीवानापन मुझे उन्होंने ही बताया। उन्होंने मुझसे वायदा भी लिया कि मैं उसे उचित प्रशिक्षण दिलवाऊंगी।
लगातार मांशू एवं अन्य बच्चों की हेंड राइटिंग में सुधार आते देखकर मेरे मन में भी सीखने की इच्छा जगी। उस समय मैं नौकरी नहीं कर रही थी। हां! बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी। समय निकालना आसान था। उनसे निवेदन किया तो वो मान भी गयीं। तुरन्त दोनांे की सुविधा को देखते हुये समय तय हुआ और दूसरे ही दिन से मेरी भी क्लास शुरु हो गयी।
अंधा क्या चाहे बस दो आंखे! एक तो मुझे नयी विद्या सीखने को मिल रही थी और दूसरा उनके जैसे व्यक्तित्व की कंपनी जो हर पल जीवन को देखने का नया दृष्टिकोण सिखा जाती।
उन्हें शायद आदत थी नये व्यंजन बनाना और प्यार से खिलाना भी। उनके हाथों में बहुत स्वाद था। मीठा बनाते समय उसे न खा पाने की कसक मैंने उनके चेहरे पर कभी भी नहीं देखी। शायद ही कोई दिन जाता जब मैं सिर्फ कैलीग्राफी सीखकर वापस आती। जब मुझसे कोई लेटर बनाते नहीं बनता तो वो किचन में जाती और कोई डिश लेकर आ जाती। बोलती-‘ये डिश खाओ। इसके बाद लेटर बनने लगेगा।’ यह उनका पसंदीदा स्टाइल था।
एक दिन मैं अन्य दिनों के समान उनकी क्लास में बैठकर ‘आई’ लेटर बनाना सीख रही थी। कुछ फोन आ रहे थे जिनमें शुभकामनाएं दी जा रही थी। वो मेरे बगल में ही बैठी थी। फोन बंद होते ही पूछा-‘आज जन्मदिन है या शादी की सालगिरह? मैंने मुस्कुराते हुये जवाब दिया-‘शादी की सालगिरह।’ उन्होेंने बधाई दी जैसे कोई अपना अपनेपन के साथ देता है। फिर उठकर अपने रुम में र्गइं। एक बेहद खूबसूरत साड़ी लेकर आई। उसमें पिको, फाल भी पहले से ही किया हुआ था। साड़ी मुझे दी और बोलीं-‘यह साड़ी तुम पर बहुत खिलेगी।’ फिर मुंह मीठा करवाने के बाद कहा कि आज की क्लास यहीं खत्म। जाओ परिवार के साथ समय बिताओ। आज का दिन बहुत खास है तुम्हारे लिए। मैं घर आ गयी। करीब एक घंटा ही हुआ होगा कि उनका फोन आया। बोली-‘अपने हनुमान को भेज दो।’ वो मांशू को मेरा हनुमान कहती थीं और आदी (आदित्य सहगल) को खुद का हनुमान कहती थीं। मांशू उनके घर से आया तो गरमा-गरम मूंग की कचौड़ियां और आटे का हलुआ भेजा था। क्या स्वाद था उन कचौड़ियों और हलवे में, शब्दों में नहीं बता सकती। उनके द्वारा मेरी शादी के दिन को स्पेशल बनाना कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। उनका दिन भी अन्य महिलाओं के समान किचन से शुरु होता और यहीं खत्म भी होता। हां वो रोज पढ़ने का कार्य जरुर करती थीं। पेपर पढ़ने के अलावा रोज कुछ न कुछ नयी किताब या धार्मिक पुस्तकें पढ़ती। पढ़ते समय जब कुछ बहुत जरुरी बात सामने आती तो उसके नीचे लाईन खींचकर या उस हिस्से को हाईलाईट करके आदी (बेटे) की टेबल पर रख देतीं,उसको पढवाने के लिए। उनके पास पुस्तकों की कोई कमी नही थी। एक बड़ा कमरा और उसमें कई अलमारियां और उनमें करीने के साथ सजी किताबें। उनके किताबों की पूंजी देखकर किसी भी किताब प्रेमी का वहां से हटने का मन ही न करे। वो मुझसे हमेश कहती थी-कोई भी अपना दिन बिना पढ़े कैसे बिता सकता है? पढ़ना याने अपनी आत्मा को भोजन देना। पेट की भूख तो सभी मिटा लेते हैं पर अपनी आत्मा को भोजन नहीं करवाते। उनके पास ज्ञान की कोई कमी नही थी। धार्मिक विधियों को वो तर्क के साथ स्वीकारती और उनका पालन भी करती। अतार्किक तथ्य मानना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था।
सावन के महीने के पहले सोमवार को उन्होंने शिव जी की पूजा में मुझे बुलाया। उस दिन उनका रुप देखने लायक था। उन्होंने उस दिन अपने पति की दी हुई रानी कलर की साड़ी पहनी थी। वो श्लोको का वाचन स्वयं कर रही थीं। शुद्ध उच्चारण के साथ श्लोक बोलती हुई वो श्रीमती सहगल नही बल्कि कोई प्रकांड पंडित नज़र आ रही थी। उन्होंने हम सभी महिलाओं से भी पूजन करवाया। शिव जी का अभिषेक तो बेहद आनंददायी था। उनके द्वारा की गयी पूजा की तैयारी के तो क्या कहने? दूध,घी, दही, लाल चंदन, अभ्रक, भांग, फल-फूल, बेल पत्र सभी कुछ था। हम सभी के हाथों से अभिषेक करवाया गया। मैं उन्हें देखकर, उनके ज्ञान को देखकर हतप्रभ थी। यह रुप मैंने पहली बार देखा था। पूजा करते समय हम में से किसी को भी आसन छोड़कर नहीं उठना पड़ा। ना वो खुद उठी। सभी चीजें हाथ की पहुंच में जो थी। हवन कुंड भी उन्होंने स्वयं तैयार किया था। पूजन खत्म होने के बाद उनके हाथ की स्वादिष्ट खीर का प्रशाद सबने ग्रहण किया।
उस दिन मैं शाम को फिर से किसी काम से उनके घर गयी। उनसे बात करते-करते पूछ बैठी कि क्या वो मेरे घर पर शिवजी का पूजन करेंगी। वो तुरंत तैयार हो गयी। मैंने तैयारी का स्वरुप तो देखा ही था। सावन के दूसरे सोमवार को मेरे घर में भी पूजन हुआ। पूजन से पहले वो आई और हवन कुंड तैयार किया। तैयारियां भी देखी। निश्चित समय में जब उन्होंने श्लोकों का वाचन किया तो बादल गड़गड़ाने लगे। बहुत ही सुंदर तरीके से पूजन हुआ। सभी ने बहुत आनंद उठाया। मेरे घर में ही अगले सोमवार को अभिषेक करवाने के लिए योगिता भाभी ने इच्छा दिखाई। वो तैयार हो गयी। इस तरह सावन के प्रत्येक सोमवार को हम सभी ने उनके कारण शिवजी का अभिषेक किया। वो मुझसे कहती कि मैंने उन्हें पंडिताइन बना दिया। कहती थी-‘ मुझमें कोई आज ही ये गुण नहीं आये। पर ज़िंदगी में मुझे समझने वाले लोग बेहद कम मिले। तुमने मुझे समझा और सम्मान भी दिया ये बहुत बड़ी बात है।’
मेरे जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। हमने पार्क सिटी सेे शिफ्ट होना तय किया। कुछ व्यक्तिगत समस्याएं थी। जब घर में यह निर्णय फायनल हो गया तो उन्हें बताया। वो सुनकर बहुत नाराज़ हुयी। दरअसल वो हमारे परिवार से दूर होना नहीं चाहती थी। उन्होंने कहा-‘जीवन में आपको आपके जैसा कोई मिल जाए यह नसीब से होता है।’
उन्होंने मुझे फैसला बदलने के लिए भी कहा। पर मैं मजबूर थी। जब मैं न मानी तो कहा कि कोर्स अधूरा नहीं छोड़ना है। अब डबल टाइम निकालकर कोर्स पूरा करना होगा। मैं भी यही चाहती थी। उन्होंने खुद ही मेरी क्लास का समय बढ़ा दिया। अब मेरी क्लास 12 बजे से शुरु होकर 3 बजे तक चलती। हम दोनों 1 घंटे का रेस्ट लेते और 4 बजे से ट्यूशन लेते।
वो मेरा कोर्स पूरा करवाना चाहती थीं परन्तु जल्दी में नहीं। यदि कोई लेटर ठीक से न बने तो आगे भी नहीं बढ़ने देती। कोई समझौता नहीं। जब उनके साथ लंबे समय तक बैठना शुरु हुआ तो उनके व्यक्त्वि के कई पर्दे मेरे सामने से उठने लगे। वो अपने कई रिश्तदारों की काउंसलर थी। कुछ लोगों का तो हर दूसरे दिन फोन आना तय रहता था। सभी बहुत इज्जत देते थे उन्हें। उनके द्वारा दी गयी सलाह को पूरा-पूरा मानते भी थे।
उनके मुंह से उनकी भाभी रुपा मामी के लिए बहुत तारीफ सुनी। कहती थी-‘जैसी भाभी उन्हें मिली, वैसी सबको मिले।’ भाभी ने उनकी कई सालों से बीमार और अन्कांशस मां की बहुत सेवा की, वो भी बिना चेहरे पर शिकन लाये। मां की डांट भी खाती और मुंह से एक शब्द भी नहीं कहती। सास को मां समझा उन्होंने। वो रुपा भाभी के सामने नतमस्तक थीं।
जब मायके जाती तो किचन में जाकर भाभी के काम में हाथ बंटाती। जानती थीं कि मेहमान आने पर घर की बहू की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। भाभी भी उनकी कंपनी बेहद पसंद करती थी। उनके लिए भी वो एक ननद नहीं, अच्छी कुक एवं अच्छी काउंसलर थी।
मैं अप्रैल 2015 में पल्लवी नगर कालोनी में शिफ्ट हो गयी जो पार्क सिटी से करीब 07 किलोमीटर दूर है। कालोनी छोड़ते समय उनसे ठीक से मुलाकात नहीं हो पायी। फिर शिफ्टिंग के कार्यों में व्यस्त होने के कारण वहां जाना भी कम हो पा रहा था। वो नाराज़ थी इस बात से। एक बार कुछ सामान लेने के काम से पार्क सिटी गयी। सोचा 10 मिनिट मेडम से भी मिल लूं। वो बहुत खुश हुयी मुझे देखकर। उनकी तबियत ठीक नहीं थी। उनका पैर बहुत सूजा हुआ था। मैंने सलाह दी कि किसी दूसरे डॉक्टर से सलाह लें। वो तैयार नहीं थी। कह रही थीं किडनी में इन्फेक्शन हो गया है जिसका कोई इलाज नहीं। मन ही नहीं हो रहा था उनके पास से उठने का। पर दुबे जी यानी मेरे पति को किसी काम से जाना था। इसलिए वो मुझे फोन करके जल्दी आने के लिए कह रहे थे। मैंने मेडम से माफी मांगते हुये इजाजत मांगी। वो नाराज हो गई। कहने लगीं कि उनके पास समय कम है। उस दिन वो मुझे थोड़ी चिड़चिड़ी लगी। मुझसे कहा कि किसी दिन मैं उनके पास सुबह से शाम तक बैठूं। बोली-‘मांशू के पापा से कहो तुम्हें सुबह छोड़ दें और मैं आदी के साथ शाम को घर छुड़वा दूंगी। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं जल्दी ही समय लेकर आपके पास आऊंगी। मेरे घर में उस समय मम्मी-पापा, छोटी बहनें और उनके बच्चे भी थे। उनके जाने के बाद हम ऐसा प्लान करेंगे, ऐसा तय किया था।
पर ईश्वर को यह मंजूर नहीं था। वो हमारी आखिरी मुलाकात थी जब मुझे वो व्यक्तित्व के विपरीत नज़र आयी। उन्होंने साफ कहा था कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है। मैंने कहा-नहीं मेडम! सब ठीक हो जाएगा। हम आदी की शादी में एक साथ भांगड़ा करेंगे। सुनकर भी बड़ी बेरुखी के साथ उन्होंने कहा था आदी के जीवन में मां का साथ नहीं है। मैं सुनकर दहल गयी। रुक जाना चाहती थी पर दूसरी जिम्मेदारियां याद आ रही थीं। मैं उनसे विदा लेकर बाहर निकली। गेट पर भी नहीं पहुंची और उन्होंने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। ऐसा वो कभी नहीं करती थी। उनके घर से निकलने के बाद जब तक आप नज़र आते हो वो खड़े रहकर हाथ हिलाती रहती थीं। मोड़ पर जाकर आदतवश मैंने पलटकर देखा तो वो वहां नहीं थीं।
बहुत नाराज थी वो मुझसे। मुझे माफ कर दो मेडम! उस घटना को याद करके आज भी दिल दुखता है। पता नहीं क्या कहना चाहती थी वो उस दिन मुझसे? या क्या बताना चाहती थी? काश! मैं उस दिन उनके पास रुक जाती। आज मेरे हाथ में पछतावे के सिवाय कुछ भी नहीं है। सहगल मेडम आपको मैं कभी नहीं भूल सकती।
http://100counsellors.com आपकी तीसरी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि व्यक्त करता है।
हृदय से श्रद्धांजलि!!!!
पूर्णिमा दुबे
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