जितना अध्धयन करते है उतना ही हमे अपने अज्ञान का आभास होता है |
1 एक युवा संन्यासी
एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगंध विदेशों में बिखेरनें वाले स्वामी विवेकानंद साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विव्दान थे| 12 जनवरी को इनकी जयंती के उपलक्ष्य में पुरे देश भर में राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है और समस्त युवाओं को उनके बताये हुए मार्ग को अपनाने हेतु प्रेरित किया जा रहा है |
“संभव की सीमा जानने का केवल एक ही तरीका है असंभव से भी आगे निकल जाना।”
इस प्रकार की सोच रखने स्वामी विवेकनद जी ने अपने अध्यात्मिक चिंतन और दर्शन से न सिर्फ लोगो को प्रेरणा दी अपितु भारत को गौरान्वित्त भी किया |
2 स्वामी विवेकानंद जी की प्रेरक जीवनी
पूरा नाम नरेंद्रनाथ विश्वनाथ दत्त
जन्म 12 जनवरी 1863
जन्मस्थान कलकत्ता (पं. बंगाल)
पिता विश्वनाथ दत्त
माता भुवनेश्वरी देवी
घरेलू नाम नरेन्द्र और नरेन
मठवासी बनने के बाद नाम स्वामी विवेकानंद
भाई-बहन 9
गुरु का नाम रामकृष्ण परमहंस
शिक्षा 1884 मे बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण
विवाह विवाह नहीं किया
संस्थापक रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण मिशन
फिलोसिफी आधुनिक वेदांत, राज योग
साहत्यिक कार्य राज योग, कर्म योग, भक्ति योग, मेरे गुरु, अल्मोड़ा से कोलंबो तक दिए गए व्याख्यान
अन्य महत्वपूर्ण काम न्यूयार्क में वेदांत सिटी की स्थापना, कैलिफोर्निया में शांति आश्रम और भारत में अल्मोड़ा के पास अध्दैत आश्रम की स्थापना
कथन “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये”
मृत्यु तिथि 4 जुलाई, 1902
मृत्यु स्थान बेलूर, पश्चिम बंगाल, भारत
3 १२ जनवरी युवा दिवस क्योँ
संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् १९८४ ई. को “अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष” घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन १९८४ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।
इस सन्दर्भ में भारत सरकार का विचार था कि .
ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्शकृयही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।
इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह.तरह के कार्यक्रम होते हैं रैलियाँ निकाली जाती हैं , योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है , पूजा.पाठ होता है , व्याख्यान होते हैं और विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है |
4 योग और स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद जी ने योग को विविध प्रकार से समझाते हुए राजयोग , कर्मयोग जैसे ग्रन्थ की रचना की |
कर्मयोग में कर्म शब्द से मतलब केवल कार्य ही है | उन्होंने कहा है कि मनुष्य का अन्तिम ध्येय सुख नहीं वरन् ज्ञान है; क्योंकि सुख और आनन्द का तो एक न एक दिन अन्त हो ही जाता है। अतः यह मान लेना कि सुख ही चरम लक्ष्य है, मनुष्य की भारी भूल है। मनुष्य इस बात से अज्ञात है कि जिन सुख दु:खों का भोग वह करता है , वास्तव में यही शिक्षक है और वह (मनुष्य) सुख – दु:ख से ही शिक्षा प्राप्त करता है|
जैसे जैसे सुख और दु:ख आत्मा पर से होकर जाते है , वैसे वैसे वे उसके उपर कई प्रकार के चित्र अंकित कर जाते है तथा यही मानव चरित्र का निर्माण करते है | कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब हमारे अन्दर ही है तथा मनुष्य जो कुछ सीखता है, वह वास्तव में आविष्कार करना ही है | ‘अविष्कार का अर्थ है – मनुष्य का अपनी अनंत ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण हटा लेना | जैसे-जैसे इस आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही हमारे ज्ञान की वृद्धि होता जाती है। आगे स्वामी विवेकानंद जी कहते है कि यदि सचमुच किसी मनुष्य के चरित्र को जाँचना चाहते हैं, तो उसके बड़े कार्यों पर से उसकी जाँच मत करो। एक मूर्ख भी किसी विशेष अवसर पर बहादुर बन जाता है। मनुष्य के अत्यन्त साधारण कार्यों की जाँच करो, और असल में वे ही ऐसी बातें है, जिनसे तुम्हें महान् पुरुष के वास्तविक चरित्र का पता लग सकता है। आकस्मिक अवसर तो छोटे-से-छोटे मनुष्य को भी किसी-न-किसी प्रकार का बड़प्पन दे देते हैं। परन्तु वास्तव में बड़ा तो वही है, जिसका चरित्र सदैव और सब आस्थाओं में महान् रहता है| हम किसके अधिकारी हैं, हम अपने भीतर क्या क्या ग्रहण कर सकते है , इस सब का निर्णय कर्म द्वारा ही होता है। कर्मयोगी के लिए सतत कर्मशीलता आवश्यक है; हमें सदैव कर्म करते रहना चाहिए। जो कार्य हमारे सामने आते जाय, उन्हें हम हाथ में लेते जाय और शनैः शनैः अपने को दिन-प्रतिदिन नि:स्वार्थ बनाने का प्रयत्न करें|
ज्ञानयोग :ज्ञानयोग स्वंज्ञान अर्थात स्वयं की जानकारी प्राप्त करना | ज्ञानयोग में ‘धर्म की आवश्यकता’, ‘आत्मा’, और आत्मा: उसके बंधन तथा मुक्ति ये तीन आख्यान दिए है | ज्ञान के माध्यम से ईश्वरीय स्वरूप का ज्ञान, वास्तविक सत्य का ज्ञान ही ज्ञानयोग का लक्ष्य है। मानव जाति के भाग-निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं , उन सब में धर्म के रूप में प्रकट होने वाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। धरती पर आज जितना भी विकास और विध्वंस हुआ है और हो रहा है वह ज्ञान का ही परिणाम है। अच्छा ज्ञान अच्छा करेगा और बुरा ज्ञान बुरा।
राजयोग : पातंजलयोग सूत्र से प्रेरित राजयोग में स्वामी विवेकानंद जी के शब्द –
“ प्रत्येक आत्मा अ-व्यक्त ब्रम्हा है | बाह्य एवं अन्त प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्माभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है |
कर्म ,उपासना ,मन संयम अथवा ज्ञान , इनमे से एक ,एक से अधिक या सभी उपायो का सहारा लेकर अपना ब्रह्माभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ |बस यही धर्म का सर्वस्व है | ” – स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद और अष्टांग योग : राजयोग में वर्णित पातंजल योग सूत्र के अनुसार योग के आठ पथ / अंग है , इनके पालन से व्यक्ति अपने शरीर और मन का स्वास्थ्य तो प्राप्त करता ही है अपितु व्यक्तिव का भी विकास होता है |
यम : अहिंसा , अस्तेय, सत्य , ब्रम्हचर्य, और अपरिग्रह |
मन , वाणी या शरीर से किसी को आहत न करना, छलकपट न करना ,सत्य वचन और सत्यता पर कायम रहना , ब्रह्मचार्यता का त्याग करना तथा स्व स्वार्थ का त्याग करना ही यम कहलाते है |
नियम: शौच , संतोष,ताप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान |
शरीर और मन की अंत: और बाह्य शुद्धि , अनुकूल परिस्तिथियों की तरह ही प्रतिकूल परिस्तिथियों को भी सहज स्वीकार करना , विचारों में शुद्धा लाना , तथा विचारों में शुद्धा को पूरा करने और ज्ञान को पूरा करने के लिए विचारों का आदान प्रदान करना , अच्छे कार्य करना और उन्हें ईश्वर को अर्पित कर देना नियम है |
“ जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते ” – स्वामी विवेकानंद
आसन : शरीर और मन के स्वास्थ्य- के लिए अति उत्तम उपाय|
जिस स्थिति में लम्बे समय तक शांत और बिना हिले डुले बैठा जा सके , आसन कहलाता है |
पातंजल योगसुत्रानुसार ;
स्थिरसुखमआसनम् ||
आसन के अभ्यास से मनोशरीर स्वस्थ और आरोग्य बनता है, साथ ही इसकी व्यक्तित्व विकास में भी अहम भूमिका है |
प्राणायाम : शरीर की महत्वपूर्ण ऊर्जा को उत्तेजित करना तथा हार्मोन्स को संतुलित करना ये सभी प्राणायाम के लाभ है |
सामान्यतः प्राणायाम अनुलोम विलोम की ही तरह है |
प्रत्याहार : यानी समस्त इन्द्रियौं का अपने आहार से विमुक्त हो जाना प्रत्याहार है | इन्द्रियौं पर नियन्त्रण करना ही इसका लक्ष्य है | इच्छाएं ,और अपेक्षाएं इन्द्रियौं की सक्रियता का ही फल है और इन्हीं से दुःख पैदा होते है | अतः इनका नियंत्रण आवश्यक है |
धारणा : मन को शरीर के अन्दर या बाहर ठहराना ही धारणा है| इससे मन के नकारात्मक विचारों को नियंत्रित किया जा सकता है |
“उठो और जागो और तब तक रुको नहीं जब तक कि तमु अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते” – स्वामी विवेकानंद
ध्यान : विद्यार्थी जीवन में ध्यान के महत्व को समझाते हुए विवेकानंद जी कहते है –
“ पढ़ने के लिए जरूरी है एकाग्रता, एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान , ध्यान से ही हम इन्द्रियौं पर संयम रखकर एकाग्रता प्राप्त कर सकते है – स्वामी विवेकानंद
समाधि : एकाग्रता की पराकाष्ठा ही समाधि है |
“ एक समय में एक काम करो , और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ | ”
– स्वामी विवेकानंद
5 अष्टांगयोग से प्रेरित है स्वामी विवेकानंद जी का व्यक्तित्व :
विवेकानंद…. एक ऐसा व्यक्तितत्व है, जो हर युवा के लिए एक आदर्श बन सकता है। उनकी कही एक एक बात पर यदि कोई अमल कर ले तो वह असफलता में कभी निराश न हो | उनके व्यक्तित्व के गुण जो अष्टांगयोग से प्रेरित है :-
• खुद पर विश्वास करो
• ताकतवर बनो
• खुद को कमजोर या पापी न मानें
• संयम
• उम्मीद न छोड़ें
• निडरता
• अपने पैरों पर खड़े हों
• स्वार्थी नहीं सेवक बनें
• आत्मशक्ति को पहचाने और जगाएं
6 “ गरीबों के सेवक ” स्वामी विवेकानंद :
स्वामी विवेकानंद ने गरीबी को भोगा था अतः वे जानते थे की जब तक भारत में गरीबी का निर्मूलन नहीं होगा , तब तक भारत का सांस्कृतिक और भौतिक विकास संभव नहीं है। एक बार वे गरीबी से तंग आकर अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे एवं गरीबी से निजात दिलाने की बात कही। स्वामी रामकृष्ण ने उनसे कहा कि जा मां दक्षिणेश्वर काली से जाकर धन मांग ले।
स्वामी विवेकानंद जब मूर्ति के समक्ष गए तो उनकी समाधि लग गई एवं उनके मुंह से सिर्फ एक वाक्य निकला- ‘मां मुझे ज्ञान और वैराग्य दो’। यह प्रक्रिया उन्होंने 3 बार दोहराई एवं तीनों बार उनके मुंह से केवल वही वाक्य निकला कि ‘मां मुझे ज्ञान और वैराग्य दो’। तब स्वामी रामकृष्ण ने उन्हें समझया कि उनका जन्म भौतिक सुख-सुविधा भोगने के लिए नहीं हुआ है , बल्कि गरीबों को ऊंचा उठाने के लिए हुआ है।
उनका मानना था कि सदियों के शोषण के कारण गरीब जनता मानव होने तक का अहसास खो चुकी है। वे स्वयं को जन्म से ही गुलाम समझते हैं। इसी कारण इस वर्ग में विश्वास एवं गौरव जागृत करने की महती आवश्यकता है। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि कमजोर व्यक्ति वह होता है, जो स्वयं को कमजोर समझता है और इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वयं को सशक्त समझता है वह पूरे विश्व के लिए अजेय हो जाता है।
श्रुति तिवारी
100counsellors.com
Editor Panel
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